संवाद स्वयं से
आज फिर से अपनी कलम उठा कर स्वयं से संवाद करने की कोशिश कर रही हूँ।
यह प्रयास अभी तक कि मेरी कोशिशों में सबसे ज़्यादा कठिन प्रतीत हो रहा है । कारण स्वयं की अभिव्यक्ति स्वयं के लिए यह एक चुनौती से कम नहीं। पर आज मन अपने लिया कुछ लिखने चाहता है, आज तक के सफर को शब्द रूप में व्यक्त करना चाहता है।
हर शाम ,सैर के बहाने अपने मन को टटोलने चल पड़ती हूँ, वह आधा पौना घंटा अपने भीतर नए नित बदलाव को समझने में,अपनी भूमिका को,वर्तमान पर रख समझने का प्रयास करती हूँ।
जब सब ओर से पराजय ही हाथ लगे तो साहस नहीं होता कि आगे कैसे कदम बढ़ाए जाए? अपनी परिस्थिति को भलीभांति समझते हुए भी ,अपने को आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं कर पा रही हूं। मुझे मालूम है लोग मेरी इसे नासमझी ही मान रहे होंगे। मैं अपने को सिर्फ एक माह और समय देना चाहती हूं,फिर नहीं तो सिर्फ अपने लिए ही जीने का साधन खोज गुजरबसर करुंगी।
एक बार और थोड़े रुक जाती हूँ,मुझे पता ही ईश्वर की शरण मुझे अब गिरने नहीं देगी।
आज जो भी हिम्मत अपने लिए जुटा पाई हूं वह सब केवल ईश्वर के सान्निध्य से ही मिला है। मैं यह भी समझ रहीं हूं कि अब और ज्यादा देर व्यर्थ में बैठे नहीं रहना है।
आज अपनी पुनः कोशिशों को शुरू करना है जिसमें आत्मशांति मिले।
मैं आज सकारात्मक हूँ कि फिर से पंछी की तरह ऊंचे नीले गगन में चहकते हुए अपना प्रयास शुरू करुंगी।
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