Wednesday, 14 October 2020




 प्रताड़ना  

फिर वही  सुबह  रमा अपनी  चारदीवारी में खुश रोज़ की दिनचर्या  को शुरू  करती है। आज क्या खाओगे , ठीक से रहना। बस यही सब बातें  उसे आनंदित करती।  उसे अपने इस संसार से कोई   शिकायत  जो नहीं थी।  पढ़ी  लिखी होने के बावजूद  कभी यह ख्याल नहीं आया  कि  अपने   पैर  पर  खड़ा  होने  चाहिए ,उसका संसार हर छोटी छोटी खुशियों  से जो भरा था कभी  ना लगा  कि  जिस संसार  को वह अपना समझ  रही है , वह तो बस  एक लेनदेन का संसार है।  वह दिन भी आया ,रमा रोज की तरह  सबकी सेवा  में  लगी थी , तभी  फ़ोन की घंटी बजी  ,रमा फ़ोन अपने पति को देते हुए बोली आप का फ़ोन आ रहा है, बात कर लीजिये।  सहजता से फिर आपने काम में लग गयी, उसे क्या मालूम यह फ़ोन तो हर दिन उसे पति के पास आता है,और वह  आनंदित हो लम्बा समय उसी में गुज़र देते हैं। 

फिर  वह दिन भी आया  उसका पति धीरे धीरे अपनी दूसरी दुनिया में रमता ही चला  गया।  घर तो उसे  बोझ  लगने लगा। किसी न किसी बहाने से बहार निकलना  और फिर अपना समय बाहर   जा कर बिताना , यही  दिनचर्या हो  गयी। रमा से रहा नहीं गया ,  हिम्मत कर पूछ ही डाला  किससे   इतनी बातें करते हो ऐसा क्या है  कि 



 बाहर  जा कर ही बात करनी होती ,जरा हम भी तो सुने , पत्नी का दुःसाहस  रमेश को पसंद नहीं आया , "दिन भर खाली रहती हो इसलिए उल्टा सोचती हो ",रमा अपने  को ही कोसती है "मेरा ही दिमाग ख़राब है , फालतू ही शक करती हूँ। 

मन ही मन क्षमा  मांगती है और फिर उसी संसार में  रमने कर प्रयास  करती  है।और वही पुरुष सत्ता उसके सर झुकाने  को पुनः अपनी विजय समझ  लेती है। 


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