Friday, 28 August 2020

पापा  की चप्पल  का डर 

यूँ  तो  सबने किसी ना किसी  मौकों  पर इस डर का सामना किया ही  होगा,  किन्तु मेरा संस्मरण आज से करीब चालीस साल पहले  की है जब हर बच्चा इस भय का चश्मदीद गवाह था और आज जब भी उसे याद आता है  तो सिहरन  से काँप  जाता है । 
पिता , एक मजबूत शख्शियत  ,जैसे ही घर में  प्रवेश करते  पूरे  घर  को मनो साप सूंघ जाता। हर एक बालक को अपने दिन भर का  वृतांत चित्रित  करने होता था । ज़बान  की लडख़ड़ाहट उस जटिल  परिस्थिति  की परिचायक थी की आप अब  घिर चुकें हैं ,किसी  न किसी क्षण  चप्पलों  की बरसात होने ही वाली है। 
ऐसी ही  घटना  मेरे कक्षा आठ  वार्षिक परीक्षा के दौरान  की है , गणित  की परीक्षा  थी , बीती शाम  से लगातार  प्रश्नों  को हल करवाया  जा  रहा  था, पर मेरी सुई  बीजगणित  की एक प्रशनावली  पर अटक गयी ,सौ  बार समझा  दिया ,पर मैं  तो अडिग थी , हर बार गलत ही करती ,मेरे पिता के सब्र  का बांध  मनो टूट ही गया , उन्होंने  उठाई अपनी चप्पल और धर  दी हर गलती पर, पता नहीं कैसे हर चोट पर सवाल बनते गए ,मनो स्वयं सरस्वती  वरदान के रूप में  जीवन को सहज करने की शिक्षा दे रही हों।  यह वाक़िआ  आज मेरा  प्रेरणा श्रोत है,आज उनकी कमी हर पल सताती है , अब कोई डर  शेष  रहा ही नहीं, वो डर जो भयभीत  करता था रहा ही नहीं,  अब तो बस  यादें  ही  हैं  उन चप्पलों  के भय को सजीव कर देती हैं और पिता के स्मृति को सजीव कर देती हैं।  

मीना शर्मा 




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